महावीर
चौबीसवें तीर्थंकर
विवरण
अन्य नाम |
वीर, अतिवीर,
वर्धमान, सन्मति |
एतिहासिक काल |
599-527 ई॰ पू॰ डॉ |
शिक्षाएं |
अहिंसा, अपरिग्रह,
अनेकान्तवाद |
पूर्व
तीर्थंकर |
पार्श्वनाथ |
वंश |
इक्ष्वाकु |
पिता |
राजा सिद्धार्थ |
माता |
त्रिशला |
जन्म |
चैत्र शुक्ल
त्रयोदशी |
जन्म स्थान |
कुण्डलग्राम, वैशाली के निकट |
मोक्ष |
कार्तिक
अमावस्या |
मोक्ष स्थान |
पावापुरी, जिला नालंदा, बिहार |
रंग |
स्वर्ण |
चिन्ह |
सिंह |
आयु |
72 वर्ष |
भगवान महावीर (Mahavira) जैन पन्थ के चौबीसवें (24वे) तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार वर्ष पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली के गणतन्त्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। 12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ जिसके पश्चात् उन्होंने समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया।
72 वर्ष
की आयु में उन्हें पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति
हुई। इस दौरान महावीर स्वामी के कई अनुयायी बने जिसमें उस समय के प्रमुख राजा बिम्बिसार, कुनिक और चेटक भी शामिल थे।
जैन समाज द्वारा महावीर स्वामी के जन्मदिवस को महावीर-जयंती तथा उनके मोक्ष
दिवस को दीपावली के रूप में धूम
धाम से मनाया जाता है।
जैन ग्रन्थों के अनुसार समय समय पर धर्म तीर्थ के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है, जो सभी जीवों को आत्मिक सुख प्राप्ति का उपाय बताते है। तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही कही गयी है। भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे और ऋषभदेव पहले।
हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है– अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य।
उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत
सिद्धान्त दिए। महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की
सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान
था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं
व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसन्द हो। यही महावीर का 'जीयो और जीने
दो' का
सिद्धान्त है।
जीवन
जन्म
भगवन महावीर का जन्म ईसा से 599 वर्ष पहले
वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर में इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के यहाँ चैत्र
शुक्ल तेरस को हुआ था। ग्रंथों के अनुसार उनके जन्म के बाद राज्य में उन्नति होने
से उनका नाम वर्धमान रखा गया था। जैन ग्रंथ उत्तरपुराण में वर्धमान, वीर, अतिवीर, महावीर और
सन्मति ऐसे पांच नामों का उल्लेख है। इन सब नामों के साथ कोई कथा जुडी है।
जैन ग्रंथों के अनुसार, २३वें
तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के निर्वाण
(मोक्ष) प्राप्त
करने के 188 वर्ष
बाद इनका जन्म हुआ था।
विवाह
तपस्या
भगवान महावीर का साधना काल 12 वर्ष का था। दीक्षा लेने के
उपरान्त भगवान महावीर ने दिगम्बर
साधु की
कठिन चर्या को अंगीकार किया और निर्वस्त्र रहे। श्वेतांबर सम्प्रदाय जिसमें साधु
श्वेत वस्त्र धारण करते है के अनुसार भी महावीर दीक्षा उपरान्त कुछ समय छोड़कर
निर्वस्त्र रहे और उन्होंने केवल ज्ञान की प्राप्ति भी दिगम्बर अवस्था में ही की।
अपने पूरे साधना काल के दौरान महावीर ने कठिन तपस्या की और मौन रहे। इन वर्षों में
उन पर कई ऊपसर्ग भी हुए जिनका उल्लेख कई प्राचीन जैन ग्रंथों में मिलता है।
केवल ज्ञान और उपदेश
जैन ग्रन्थों के अनुसार केवल ज्ञान प्राप्ति के
बाद, भगवान
महावीर ने उपदेश दिया। उनके 11 गणधर (मुख्य शिष्य) थे जिनमें प्रथम इंद्रभूति थे।
जैन ग्रन्थ, उत्तरपुराण के अनुसार
महावीर स्वामी ने समवसरण में जीव आदि सात तत्त्व, छह द्रव्य, संसार और मोक्ष
के कारण तथा उनके फल का नय आदि उपायों से वर्णन किया था।
पाँच व्रत
सत्य ― सत्य के
बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो
बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।
अहिंसा – इस लोक में
जितने भी त्रस जीव (एक, दो, तीन, चार और पाँच इंद्रीयों
वाले जीव) है
उनकी हिंसा मत कर, उनको
उनके पथ पर जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा
करो। यही अहिंसा का संदेश भगवान महावीर अपने उपदेशों से हमें देते हैं।
अचौर्य - दुसरे के
वस्तु बिना उसके दिए हुआ ग्रहण करना जैन ग्रंथों में चोरी कहा गया है।
अपरिग्रह – परिग्रह पर
भगवान महावीर कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा
संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से
कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। यही संदेश अपरिग्रह का माध्यम से भगवान महावीर दुनिया
को देना चाहते हैं।
ब्रह्मचर्य - महावीर
स्वामी ब्रह्मचर्य के बारे में अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश देते हैं कि ब्रह्मचर्य
उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय
की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष स्त्रियों से संबंध
नहीं रखते, वे
मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं।
जैन मुनि, आर्यिका इन्हें पूर्ण रूप से पालन करते है, इसलिए उनके
महाव्रत होते है और श्रावक, श्राविका इनका
एक देश पालन करते है, इसलिए
उनके अणुव्रत कहे जाते है।
दस धर्म
जैन ग्रंथों में दस धर्म का वर्णन है। पर्युषण पर्व, जिन्हें दस
लक्षण भी कहते है के दौरान दस दिन इन दस धर्मों का चिंतन किया जाता है।
क्षमा
क्षमा के बारे में भगवान महावीर कहते हैं- 'मैं सब जीवों
से क्षमा चाहता हूँ। जगत के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से
वैर नहीं है। मैं सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे
अपराधों की क्षमा माँगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं
क्षमा करता हूँ।'
वे यह भी कहते हैं 'मैंने अपने मन
में जिन-जिन पाप की वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की
हों और शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों। मेरे वे सारे
पाप मिथ्या हों।'
धर्म
धर्म सबसे उत्तम मंगल है। अहिंसा, संयम और तप ही
धर्म है। महावीर जी कहते हैं जो धर्मात्मा है, जिसके मन में सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी
नमस्कार करते हैं।
भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में धर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह, क्षमा
पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का
सार था।
मोक्ष
तीर्थंकर महावीर का केवलिकाल 30 वर्ष का था।
उनके के संघ में 14000 साधु, 26000 साध्वी, 100000 श्रावक और 300000 श्रविकाएँ थी। भगवान महावीर
ने 527 ईसापूर्व, 72 वर्ष की आयु
में बिहार के पावापुरी (राजगीर) में
कार्तिक कृष्ण अमावस्या को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया। उनके साथ अन्य कोई मुनि मोक्ष को
प्राप्त नहीं हुए | पावापुरी
में एक जल मंदिर स्थित है जिसके बारे में कहा जाता है कि यही वह स्थान है जहाँ से
महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।