वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization)
सिंधु घाटी सभ्यता के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे ही आर्य (Aryan) अथवा वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization) के नाम से जाना जाता है।
इस काल की जानकारी हमे मुख्यत: वेदों से प्राप्त होती है, जिसमे ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
वैदिक काल को ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल (1500 -1000 ई.पु.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000 - 600 ई.पु.) में बांटा गया है।
वेदों की रचना और मौखिक रूप से एक पुरानी इंडो-आर्यन भाषा बोलने वालों द्वारा सटीक रूप से प्रेषित की गई थी, जो इस अवधि के शुरू में भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में चले गए थे।
वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था। आरंभिक वैदिक आर्य पंजाब में केंद्रित एक कांस्य युग के समाज थे, जो कि राज्यों के बजाय जनजातियों में संगठित थे, और मुख्य रूप से जीवन का एक देहाती तरीका था।
1200–1000 ई.पू., वैदिक आर्य पूर्व में उपजाऊ पश्चिमी गंगा के मैदान में फैल गए और उन्होंने लोहे के उपकरण अपना लिए, जो जंगल को साफ करने और अधिक व्यवस्थित, कृषि जीवन को अपनाने की अनुमति देते थे।
वैदिक काल के उत्तरार्ध में भारत, और कुरु साम्राज्य के रूढ़िवादी यज्ञ अनुष्ठान के लिए एक जटिल सामाजिक विभेदीकरण, शहरों, राज्यों और एक जटिल सामाजिक भेदभाव के उद्भव की विशेषता थी। इस समय के दौरान, केंद्रीय गंगा मैदान एक संबंधित लेकिन गैर-वैदिक इंडो-आर्यन संस्कृति का प्रभुत्व था।
वैदिक काल के अंत में सच्चे शहरों और बड़े राज्यों (महाजनपद कहा जाता है) के उदय के साथ-साथ आंदोलनों (जैन धर्म और बौद्ध धर्म सहित) में वृद्धि हुई, जिसने वैदिक रूढ़िवाद को चुनौती दी।
वैदिक काल में सामाजिक वर्गों के एक पदानुक्रम का उदय हुआ जो प्रभावशाली रहेगा। वैदिक धर्म ब्राह्मणवादी रूढ़िवादी में विकसित हुआ, और कॉमन युग की शुरुआत के आसपास, वैदिक परंपरा ने तथाकथित "हिंदू संश्लेषण" के मुख्य घटकों में से एक का गठन किया।
वेदों के अतिरिक्त संस्कृत के अन्य कई ग्रंथो की रचना भी 14-15 वीं काल में हुई थी। वेदांगसूत्रौं की रचना मन्त्र ब्राह्मणग्रंथ और उपनिषद इन वैदिकग्रन्थौं को व्यवस्थित करने मे हुआ है। अनन्तर रामायण, महाभारत, और पुराणौं की रचना हुआ जो इस काल के ज्ञानप्रदायी स्रोत माना गया हैं। अनन्तर चार्वाक, तान्त्रिकौं, बौद्ध और जैन धर्म का उदय भी हुआ।
इतिहासकारों का मानना है कि आर्य मुख्यतः उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में रहते थे इस कारण आर्य सभ्यता का केन्द्र मुख्यतः उत्तरी भारत था। इस काल में उत्तरी भारत (आधुनिक पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा नेपाल समेत) कई महाजनपदों में बंटा था। आर्यों का आगमन मध्य एशिया से हुआ।
इस काल की जानकारी हमे मुख्यत: वेदों से प्राप्त होती है, जिसमे ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
वैदिक काल को ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल (1500 -1000 ई.पु.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000 - 600 ई.पु.) में बांटा गया है।
वैदिक काल, या वैदिक समय (1500 - 500 ईसा पूर्व)
शहरी सिंधु घाटी सभ्यता के अंत और उत्तरी मध्य-गंगा में शुरू होने वाले एक दूसरे शहरीकरण के बीच उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में अवधि है।वेदों की रचना और मौखिक रूप से एक पुरानी इंडो-आर्यन भाषा बोलने वालों द्वारा सटीक रूप से प्रेषित की गई थी, जो इस अवधि के शुरू में भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में चले गए थे।
वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था। आरंभिक वैदिक आर्य पंजाब में केंद्रित एक कांस्य युग के समाज थे, जो कि राज्यों के बजाय जनजातियों में संगठित थे, और मुख्य रूप से जीवन का एक देहाती तरीका था।
1200–1000 ई.पू., वैदिक आर्य पूर्व में उपजाऊ पश्चिमी गंगा के मैदान में फैल गए और उन्होंने लोहे के उपकरण अपना लिए, जो जंगल को साफ करने और अधिक व्यवस्थित, कृषि जीवन को अपनाने की अनुमति देते थे।
वैदिक काल के उत्तरार्ध में भारत, और कुरु साम्राज्य के रूढ़िवादी यज्ञ अनुष्ठान के लिए एक जटिल सामाजिक विभेदीकरण, शहरों, राज्यों और एक जटिल सामाजिक भेदभाव के उद्भव की विशेषता थी। इस समय के दौरान, केंद्रीय गंगा मैदान एक संबंधित लेकिन गैर-वैदिक इंडो-आर्यन संस्कृति का प्रभुत्व था।
वैदिक काल के अंत में सच्चे शहरों और बड़े राज्यों (महाजनपद कहा जाता है) के उदय के साथ-साथ आंदोलनों (जैन धर्म और बौद्ध धर्म सहित) में वृद्धि हुई, जिसने वैदिक रूढ़िवाद को चुनौती दी।
वैदिक काल में सामाजिक वर्गों के एक पदानुक्रम का उदय हुआ जो प्रभावशाली रहेगा। वैदिक धर्म ब्राह्मणवादी रूढ़िवादी में विकसित हुआ, और कॉमन युग की शुरुआत के आसपास, वैदिक परंपरा ने तथाकथित "हिंदू संश्लेषण" के मुख्य घटकों में से एक का गठन किया।
वेदों के अतिरिक्त संस्कृत के अन्य कई ग्रंथो की रचना भी 14-15 वीं काल में हुई थी। वेदांगसूत्रौं की रचना मन्त्र ब्राह्मणग्रंथ और उपनिषद इन वैदिकग्रन्थौं को व्यवस्थित करने मे हुआ है। अनन्तर रामायण, महाभारत, और पुराणौं की रचना हुआ जो इस काल के ज्ञानप्रदायी स्रोत माना गया हैं। अनन्तर चार्वाक, तान्त्रिकौं, बौद्ध और जैन धर्म का उदय भी हुआ।
इतिहासकारों का मानना है कि आर्य मुख्यतः उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में रहते थे इस कारण आर्य सभ्यता का केन्द्र मुख्यतः उत्तरी भारत था। इस काल में उत्तरी भारत (आधुनिक पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा नेपाल समेत) कई महाजनपदों में बंटा था। आर्यों का आगमन मध्य एशिया से हुआ।
नाम और देशकाल
वैदिक सभ्यता का नाम ऐसा इस लिए पड़ा कि वेद उस काल की जानकारी का प्रमुख स्रोत हैं।
वेद चार है - ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद।
इनमें से ऋग्वेद की रचना सबसे पहले हुई थी। ऋग्वेद में ही गायत्री मन्त्र है जो सविता (सूर्य) को समर्पित है।
ऋग्वेद के काल निर्धारण में विद्वान एकमत नहीं है। सबसे पहले मैक्स मूलर ने वेदों के काल निर्धारण का प्रयास किया। उसने बौद्ध धर्म (550 ईसा पूर्व) से पीछे की ओर चलते हुए वैदिक साहित्य के तीन ग्रंथों की रचना को मनमाने ढंग से 200-200 वर्षों का समय दिया और इस तरह ऋग्वेद के रचना काल को 1200 ईसा पूर्व के करीब मान लिया पर निश्चित रूप से उसके आंकलन का कोई आधार नहीं था।
वैदिक काल को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है- ऋग्वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल।
ऋग्वेद के काल निर्धारण में विद्वान एकमत नहीं है। सबसे पहले मैक्स मूलर ने वेदों के काल निर्धारण का प्रयास किया। उसने बौद्ध धर्म (550 ईसा पूर्व) से पीछे की ओर चलते हुए वैदिक साहित्य के तीन ग्रंथों की रचना को मनमाने ढंग से 200-200 वर्षों का समय दिया और इस तरह ऋग्वेद के रचना काल को 1200 ईसा पूर्व के करीब मान लिया पर निश्चित रूप से उसके आंकलन का कोई आधार नहीं था।
वैदिक काल को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है- ऋग्वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल।
ऋग्वैदिक काल आर्यों के आगमन के तुरंत बाद का काल था जिसमें कर्मकांड गौण थे पर उत्तरवैदिक काल में हिन्दू धर्म में कर्मकांडों की प्रमुखता बढ़ गई।
ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.)
मैक्स मूलर के अनुसार आर्य का मूल निवास मध्य ऐशिया है।आर्यो द्वारा निर्मित सभ्यता वैदिक काल कहलाई। आर्यो द्वारा विकसित सभ्य्ता ग्रामीण सभ्यता कहलायी। आर्यों की भाषा संस्कृत थी।
इस काल की तिथि निर्धारण जितनी विवादास्पद रही है उतनी ही इस काल के लोगों के बारे में सटीक जानकारी। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि इस समय तक केवल इसी ग्रंथ (ऋग्वेद) की रचना हुई थी।
मैक्स मूलर ने जब इसे 1200 ईसा पूर्व से आरंभ होता बताया था उसके समकालीन विद्वान डब्ल्यू. डी. ह्विटनी ने इसकी आलोचना की थी। उसके बाद मैक्स मूलर ने स्वीकार किया था कि " पृथ्वी पर कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो निश्चित रूप से बता सके कि वैदिक मंत्रों की रचना 1000 ईसा पूर्व में हुई थी या कि 1500 ईसापूर्व में या 2000 या 3000 "।
ऐसा माना जाता है कि आर्यों का एक समूह भारत के अतिरिक्त ईरान (फ़ारस) और यूरोप की तरफ़ भी गया था। ईरानी भाषा के प्राचीनतम ग्रंथ अवेस्ता की सूक्तियां ऋग्वेद से मिलती जुलती हैं। अगर इस भाषिक समरूपता को देखें तो ऋग्वेद का रचनाकाल 1000 ईसापूर्व आता है। लेकिन बोगाज-कोई (एशिया माईनर) में पाए गए 1400 ईसा पूर्व के अभिलेख में हिंदू देवताओं इंद, मित्रावरुण, नासत्य इत्यादि को देखते हुए इसका काल और पीछे माना जा सकता है।
बाल गंगाधर तिलक ने ज्योतिषीय गणना करके वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization) काल 6000 ई.पू. माना था। हरमौन जैकोबी ने जहाँ इसे 4500 ईसापूर्व से 2500 ईसापूर्व के बीच आंका था वहीं सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान विंटरनित्ज़ ने इसे 3000 ईसापूर्व का बताया था।
आर्यों की प्रशासनिक संस्थाएं काफी सशक्त अवस्था में थी। प्रारंभ में राजा का चुनाव जनता के द्वारा किया जाता था बाद में उसका पद धीरे-धीरे पैतृक होता चला गया परंतु राजा निरंकुश नहीं होता था वह जनता की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी लेता था इस सुरक्षा व्यवस्था के बदले में लोग राजा को स्वैच्छिक कर देते थे जिसे बलि कहा जाता था।
मैक्स मूलर ने जब इसे 1200 ईसा पूर्व से आरंभ होता बताया था उसके समकालीन विद्वान डब्ल्यू. डी. ह्विटनी ने इसकी आलोचना की थी। उसके बाद मैक्स मूलर ने स्वीकार किया था कि " पृथ्वी पर कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो निश्चित रूप से बता सके कि वैदिक मंत्रों की रचना 1000 ईसा पूर्व में हुई थी या कि 1500 ईसापूर्व में या 2000 या 3000 "।
ऐसा माना जाता है कि आर्यों का एक समूह भारत के अतिरिक्त ईरान (फ़ारस) और यूरोप की तरफ़ भी गया था। ईरानी भाषा के प्राचीनतम ग्रंथ अवेस्ता की सूक्तियां ऋग्वेद से मिलती जुलती हैं। अगर इस भाषिक समरूपता को देखें तो ऋग्वेद का रचनाकाल 1000 ईसापूर्व आता है। लेकिन बोगाज-कोई (एशिया माईनर) में पाए गए 1400 ईसा पूर्व के अभिलेख में हिंदू देवताओं इंद, मित्रावरुण, नासत्य इत्यादि को देखते हुए इसका काल और पीछे माना जा सकता है।
बाल गंगाधर तिलक ने ज्योतिषीय गणना करके वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization) काल 6000 ई.पू. माना था। हरमौन जैकोबी ने जहाँ इसे 4500 ईसापूर्व से 2500 ईसापूर्व के बीच आंका था वहीं सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान विंटरनित्ज़ ने इसे 3000 ईसापूर्व का बताया था।
प्रशासन
वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization) में प्रशासन की निम्न स्थिति थी-
- प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल थी। एक कुल में एक घर में एक छत के नीचे रहने वाले लोग शामिल थे। परिवार के मुखिया को कुलुप कहा जाता था।
- एक ग्राम कई कुलों से मिलकर बना होता था। ग्राम के मुखिया को ग्रामिणी कहा जाता था।
- ग्रामों का संगठन विश् कहलाता था। विश का प्रधान विशपति कहलाता था
- विशों का संगठन जन कहलाता था। जन के शासक को राजन् (राजा) कहते थे।
- कई जन मिलकर राष्ट्र बनाते थे। राष्ट्र के प्रधान को सम्राट कहते थे।
आर्यों की प्रशासनिक संस्थाएं काफी सशक्त अवस्था में थी। प्रारंभ में राजा का चुनाव जनता के द्वारा किया जाता था बाद में उसका पद धीरे-धीरे पैतृक होता चला गया परंतु राजा निरंकुश नहीं होता था वह जनता की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी लेता था इस सुरक्षा व्यवस्था के बदले में लोग राजा को स्वैच्छिक कर देते थे जिसे बलि कहा जाता था।
ऋग्वैदिक आर्यों की दो महत्वपूर्ण राजनैतिक संस्थाएं थीं जिन्हें सभा और समिति कहा जाता था-
- "सभा-" इसे उच्च सदन भी कहा जा सकता है यह समाज से आए हुए बुद्धिमान और अनुभवी व्यक्तियों की संस्था थी। सभा के सदस्यों को सभेय अथवा सभासद कहा जाता था और सभा का अध्यक्ष सभापति कहा जाता था सभा के सदस्यों को पितर कहा जाता था जिससे पता लगता है कि ये बुजुर्ग और अनुभवी लोग थे।
- "समिति-" समिति आम जनमानस की संस्था थी उसके सदस्य समस्त नागरिक होते थे इसमें सामान्य विषयों पर चर्चा होती थी । उसके अध्यक्ष को ईशान कहा जाता था। प्रारंभ में समिति में स्त्रियां भी आती थी और उसमें आकर ऋक नामक गान किया करती थी। आर्यों की सबसे प्राचीन संस्था को जनसभा थी उसे "विदथ" कहा जाता था।
धर्म -
वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization) में धार्मिक स्थिति निम्न थी-
ऋग्वैदिक काल में प्राकृतिक शक्तियों की ही पूजा की जाती थी और कर्मकांडों की प्रमुखता नहीं थी।
ऋग्वैदिक काल धर्म की अन्य विशेषताएं •
क्रत्या, निऋति, यातुधान, ससरपरी आदि के रूप मे अपकरी शक्तियो अर्थात, राछसों, पिशाच एवं अप्सराओ का जिक्र दिखाई पडता है। इस समय में मूर्ति पूजन नहीं होता था और ना ही मंत्रोचार किया जाता था। कर्मकांड जैसे पूजा-पाठ, व्रत,यज्ञ आदि इस काल में नहीं होते थे।
उत्तरवैदिक काल (1000-600 ई०पू०)
ऋग्वैदिक काल में आर्यों का निवास स्थान सिंधु तथा सरस्वती नदियों के बीच में था। बाद में वे सम्पूर्ण उत्तर भारत में फ़ैल चुके थे। सभ्यता का मुख्य क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का मैदान हो गया था। गंगा को आज भारत की सबसे पवित्र नदी माना जाता है।
इस काल में विश् का विस्तार होता गया और कई जन विलुप्त हो गए। भरत, त्रित्सु और तुर्वस जैसे जन् राजनीतिक हलकों से ग़ायब हो गए जबकि पुरू पहले से अधिक शक्तिशाली हो गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ नए राज्यों का विकास हो गया था, जैसे - काशी, कोसल, विदेह (मिथिला), मगध और अंग।
ऋग्वैदिक काल में सरस्वती नदी को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। गंगा का एक बार और यमुना नदी का उल्लेख तीन बार हुआ है।
ऋग्वैदिक काल में सरस्वती नदी को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। गंगा का एक बार और यमुना नदी का उल्लेख तीन बार हुआ है।
इस काल मे कौसाम्बी नगर मे पहली बार पक्की ईटो का प्रयोग किया गया।
इस काल मे वर्ण व्यासाय के बजाय जन्म के आधार पे निर्धारित होने लगे।
वैदिक साहित्य
- वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है।
- वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है।
- वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है।
ऋग्वेद
- ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है।
- यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं।
- इसमें 1028 सूक्त हैं। इसकी भाषा पद्यात्मक है।
- ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है।
- प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है।
- 'असतो मा सद्गमय' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है।
- ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि।
- इसके पुरोहित के नाम होत्री है।
सामवेद
- सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी।
- इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं।
- सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय।
- सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।
यजुर्वेद
- यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्विद्या का उल्लेख है।
- इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं।
- यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है।
- इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है।
- इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है।
- यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है।
- यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद।
- कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता।
- शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता।
- यह 40 अध्याय में विभाजित है।
- इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है।
विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञ
- होत्र - ऋग्वेद का पाठ करने वाला।
- उदगाता - सामवेद की रचनाओं का गान करने वाला।
- अध्वर्यु - यजुर्वेद का पाठ करने व
- ब्रह्मा - संपूर्ण यज्ञों की देख रेख करने वाला।
ब्राह्मण
- वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है।
- पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं।
- महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है।
- संहिताओं के अन्तर्गत कर्मकांड की जो विधि उपदिष्ट है, ब्राह्मण मे उसी की सप्रमाण व्याख्या देखने को मिलता है।
- प्राचीन परम्परा में आश्रमानुरुप वेदों का पाठ करने की विधि थी अतः ब्रह्मचारी ऋचाओं ही पाठ करते थे, गृहस्थ ब्राह्मणों का, वानप्रस्थ आरण्यकों और संन्यासी उपनिषदों का।
- गार्हस्थ्यधर्म का मननीय वेदभाग ही ब्राह्मण है।
- यह मुख्यतः गद्य शैली में उपदिष्ट है।
- ब्राह्मण ग्रंथों से हमें बिम्बिसार के पूर्व की घटना का ज्ञान प्राप्त होता है।
- ऐतरेय ब्राह्मण में आठ मंडल हैं और पाँच अध्याय हैं। इसे पंजिका भी कहा जाता है।
- ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम प्राप्त होते हैं।
- तैतरीय ब्राह्मण कृष्णयजुर्वेद का ब्राह्मण है।
- शतपथ ब्राह्मण में 100 अध्याय, 14 काण्ड और 438 ब्राह्मण है। गान्धार, शल्य, कैकय, कुरु, पांचाल, कोसल, विदेह आदि स्थलों का भी उल्लेख होता है
- शतपथवर्ती ब्राह्मण गोपथ है।
आरण्यक
- आरण्यक वेदों का वह भाग है जो गृहस्थाश्रम त्याग उपरान्त वानप्रस्थ लोग जंगल में पाठ किया करते थे | इसी कारण आरण्यक नामकरण किया गया।
- इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रहस्यवाद, प्रतीकवाद, यज्ञ और पुरोहित दर्शन है।
- वर्तमान में सात अरण्यक उपलब्ध हैं।
- सामवेद और अथर्ववेद का कोई आरण्यक स्पष्ट और भिन्न रूप में उपलब्ध नहीं है।
उपनिषद
- उपनिषद प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है। उपनिषदों में ‘वृहदारण्यक’ तथा ‘छान्दोन्य’, सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।
- इन ग्रन्थों से बिम्बिसार के पूर्व के भारत की अवस्था जानी जा सकती है।
- परीक्षित, उनके पुत्र जनमेजय तथा पश्चात कालीन राजाओं का उल्लेख इन्हीं उपनिषदों में किया गया है।
- इन्हीं उपनिषदों से यह स्पष्ट होता है कि आर्यों का दर्शन विश्व के अन्य सभ्य देशों के दर्शन से सर्वोत्तम तथा अधिक आगे था।
- आर्यों के आध्यात्मिक विकास, प्राचीनतम धार्मिक अवस्था और चिन्तन के जीते-जागते जीवन्त उदाहरण इन्हीं उपनिषदों में मिलते हैं।
- उपनिषदों की रचना संभवतः बुद्ध के काल में हुई, क्योंकि भौतिक इच्छाओं पर सर्वप्रथम आध्यात्मिक उन्नति की महत्ता स्थापित करने का प्रयास बौद्ध और जैन धर्मों के विकास की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ।
- कुल उपनिषदों की संख्या 108 है।
- मुख्य रूप से शास्वत आत्मा, ब्रह्म, आत्मा-परमात्मा के बीच सम्बन्ध तथा विश्व की उत्पत्ति से सम्बंधित रहस्यवादी सिधान्तों का विवरण दिया गया है।
- "सत्यमेव जयते" मुण्डकोपनिषद से लिया गया है।
- मैत्रायणी उपनिषद् में त्रिमूर्ति और चार्तु आश्रम सिद्धांत का उल्लेख है।
वेदांग
- युगान्तर में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं (शाखाओं) का जन्म हुआ जिन्हें ‘वेदांग’ कहते हैं।
- वेदांग का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंग, तथापि इस साहित्य के पौरूषेय होने के कारण श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है।
- वेदांग को स्मृति भी कहा जाता है, क्योंकि यह मनुष्यों की कृति मानी जाती है।
- वेदांग सूत्र के रूप में हैं इसमें कम शब्दों में अधिक तथ्य रखने का प्रयास किया गया है।
वेदांग की संख्या 6 है
- शिक्षा - स्वर ज्ञान
- कल्प - धार्मिक रीति एवं पद्धति
- निरुक्त - शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र
- व्याकरण - व्याकरण
- छंद - छंद शास्त्र
- ज्योतिष - खगोल विज्ञान
सूत्र साहित्य
सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग है तथा यह उसे समझने में सहायक भी है।- कल्प सूत्र - ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण। वेदों का हस्त स्थानीय वेदांग।
- श्रोत सूत्र - महायज्ञ से सम्बंधित विस्तृत विधि-विधानों की व्याख्या। वेदांग कल्पसूत्र का पहला भाग।
- स्मार्तसूत्र - षोडश संस्कारों का विधान करने वाला कल्प का दुसरा भाग।
- शुल्बसूत्र - यज्ञ स्थल तथा अग्निवेदी के निर्माण तथा माप से सम्बंधित नियम इसमें हैं। इसमें भारतीय ज्यामिति का प्रारम्भिक रूप दिखाई देता है। कल्प का तीसरा भाग।
- धर्म सूत्र - इसमें सामाजिक धार्मिक कानून तथा आचार संहिता है। कल्प का चौथा भाग
- गृह्य सूत्र - परुवारिक संस्कारों, उत्सवों तथा वैयक्तिक यज्ञों से सम्बंधित विधि-विधानों की चर्चा है।
राजनीतिक स्थिति
- ऋग्वैदिक काल मुख्यतः एक कबीलाई व्यवस्था वाला शासन था जिसमें सैनिक भावना प्रमुख थी।
- राजा को गोमत भी कहा जाता था।
- वैदिक काल में राजतंत्रात्मक प्रणाली प्रचलित थी। इसमें शासन का प्रमुख राजा होता था।
- राजा वंशानुगत तो होता था परन्तु जनता उसे हटा सकती थी। वह क्षेत्र विशेष का नहीं बल्कि जन विशेष का प्रधान होता था।
- राजा युद्ध का नेतृत्वकर्ता था। उसे कर वसूलने का अधिकार नही था। जनता द्वारा स्वेच्छा से दिए गए भाग से उसका खर्च चलता था।
- सभा, समिति तथा विदथ नामक प्रशासनिक संस्थाएं थीं।
- अथर्ववेद में सभा एवं समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है। समिति का महत्वपूर्ण कार्य राजा का चुनाव करना था। समिति का प्रधान ईशान या पति कहलाता था। विदथ में स्त्री एवं पुरूष दोनों सम्मलित होते थे। नववधुओं का स्वागत, धार्मिक अनुष्ठान आदि सामाजिक कार्य विदथ में होते थे।
- सभा श्रेष्ठ लोंगो की संस्था थी, समिति आम जनप्रतिनिधि सभा थी एवं विदथ सबसे प्राचीन संस्था थी। ऋग्वेद में सबसे ज्यादा बार उल्लेख विदथ का 122 बार हुआ है।
- सैन्य संचालन वरात, गण व सर्ध नामक कबीलाई संगठन करते थे।
- शतपथ ब्रह्मण के अनुसार अभिषेक होने पर राजा महँ बन जाता था। राजसूय यज्ञ करने वाले की उपाधि राजा तथा वाजपेय यज्ञ करने वाले की उपाधि सम्राट थी।
- स्पर्श, गुप्तचरों को और पुरूप, दुर्गापति को कहा जाता था।
राजा का प्रशासनिक सहयोग पुरोहित एवं सेनानी आदि 12 रत्निन करते थे। चारागाह के प्रधान को वाज्रपति एवं लड़ाकू दलों के प्रधान को ग्रामिणी कहा जाता था।
12 रत्निन
- पुरोहित - राजा का प्रमुख परामर्शदाता,
- सेनानी - सेना का प्रमुख,
- ग्रामीण - ग्राम का सैनिक पदाधिकारी,
- महिषी - राजा की पत्नी,
- सूत - राजा का सारथी,
- क्षत्रि - प्रतिहार,
- संग्रहित - कोषाध्यक्ष,
- भागदुध - कर एकत्र करने वाला अधिकारी,
- अक्षवाप - लेखाधिकारी,
- गोविकृत - वन का अधिकारी,
- पालागल - राजा का मित्र।
विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञ
- होत्र - ऋग्वेद का पाठ करने वाला।
- उदगाता - सामवेद की रचनाओं का गान करने वाला।
- अध्वर्यु - यजुर्वेद का पाठ करने व
- ब्रह्मा - संपूर्ण यज्ञों की देख रेख करने वाला।
सामाजिक स्थिति
- ऋग्वेद के दसवें मंडल में चार वर्णों का उल्लेख मिलता है।
- वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी। दसवें मंडल को परवर्ती काल माना जाता है।
- समाज पितृसत्तात्मक था। संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी।
- परिवार का मुखिया 'कुलप' कहलाता था। परिवार कुल कहलाता था। कई कुल मिलकर ग्राम, कई ग्राम मिलकर विश, कई विश मिलकर जन एवं कई जन मिलकर जनपद बनते थे।
- अतिथि सत्कार की परम्परा का सबसे ज्यादा महत्व था।
- एक और वर्ग ' पणियों ' का था जो धनि थे और व्यापार करते थे।
- भिखारियों और कृषि दासों का अस्तित्व नहीं था।
- संपत्ति की इकाई गाय थी जो विनिमय का माध्यम भी थी।
- सारथी और बढई समुदाय को विशेष सम्मान प्राप्त था।
- अस्पृश्यता, सती प्रथा, परदा प्रथा, बाल विवाह आदि का प्रचलन नहीं था।
- शिक्षा एवं वर चुनने का अधिकार महिलाओं को था।
- विधवा विवाह, महिलाओं का उपनयन संस्कार, नियोग, गन्धर्व एवं अंतर्जातीय विवाह प्रचलित था।
- वस्त्राभूषण स्त्री एवं पुरूष दोनों को प्रिय थे।
- जौ (यव) मुख्य अनाज था। शाकाहार का प्रचलन था। सोम रस (अम्रित जैसा) का प्रचलन था।
- नृत्य, संगीत, पासा, घुड़दौड़, मल्लयुद्ध, शुइकर आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।
- अपाला, घोष, मैत्रयी, विश्ववारा, गार्गी आदि विदुषी महिलाएं थीं।
- ऋग्वेद में अनार्यों (मुर्ख या दस्यु) को मृद्धवाय (अस्पष्ट बोलने वाला), अवृत (नियमों- व्रतों का पालन नहीं करने वाला), बताया गया है।
- सर्वप्रथम 'जाबालोपनिषद' में चारों आश्रम ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम का उल्लेख मिलता है।
आर्थिक स्थिति
- अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार पशुपालन एवं कृषि था।
- ज्यादा पालतू पशु रखने वाले गोमत कहलाते थे।
- चारागाह के लिए 'उत्यति' या 'गव्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। दूरी को 'गवयुती', पुत्री को दुहिता (गाय दुहने वाली) तथा युद्धों के लिए 'गविष्टि' का प्रयोग होता था।
- राजा को जनता स्वेच्छा से भाग नजराना देती थी।
- आवास घास-फूस एवं काष्ठ के निर्मित होते थे।
- ऋण लेने एवं देने की प्रथा प्रचलित थी जिसे 'कुसीद' कहा जाता था।
- बैलगाड़ी, रथ एवं नाव यातायात के प्रमुख साधन थे।
कृषि
- सर्वप्रथम शतपथ ब्राम्हण में कृषि की समस्त प्रक्रियाओं का उल्लेख मिलता है।
- ऋग्वेद के प्रथम और दसम मंडलों में बुआई, जुताई, फसल की गहाई आदि का वर्णन है।
- ऋग्वेद में केवल यव (जौ) नामक अनाज का उल्लेख मिलता है।
- ऋग्वेद के चौथे मंडल में कृषि का वर्णन है।
- परवर्ती वैदिक साहित्यों में ही अन्य अनाजों जैसे- गोधूम(गेंहू), ब्रीही (चावल) आदि की चर्चा की गई है।
- काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हल खींचे जाने का, अथर्ववेद में वर्षा, कूप एवं नाहर का तथा यजुर्वेद में हल का ' सीर ' के नाम से उल्लेख है।
- उस काल में कृत्रिम सिंचाई की व्यवस्था भी थी।
पशुपालन
- पशुओं का चारण ही उनकी आजीविका का प्रमुख साधन था।
- गाय ही विनिमय का प्रमुख साधन थी।
- ऋग्वैदिक काल में भूमिदान या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व की धारणा विकसित नही हुई थी।
व्यापार
- आरम्भ में अत्यन्त सीमित व्यापार प्रथा का प्रचलन था।
- व्यापार विनिमय पद्धति पर आधारित था।
- समाज का एक वर्ग 'पाणी' व्यापार किया करते थे।
- राजा को नियमित कर देने या भू-राजस्व देने की प्रथा नहीं थी। राजा को स्वेच्छा से भाग या नजराना दिया जाता था।
- पराजित कबीला भी विजयी राजा को भेंट देता था। अपने धन को राजा अपने अन्य साथियों के बीच बांटता था।
- धातु एवं सिक्के : ऋग्वेद में उल्लेखित धातुओं में सर्वप्रथम धातू, अयस (ताँबा या कांसा) था।
- वैदिक सभ्यता के लोग सोना (हिरव्य या स्वर्ण) एवं चांदी से भी परिचित थे।
- ऋग्वेद में लोहे का उल्लेख नहीं है।
- 'निष्क' संभवतः सोने का आभूषण या मुद्रा था जो विनिमय के काम में भी आता था।
उद्योग
- ऋग्वैदिक काल के उद्योग घरेलु जरूरतों के पूर्ति हेतु थे।
- बढ़ई एवं धूकर का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्व था।
- अन्य प्रमुख उद्योग वस्त्र, बर्तन, लकड़ी एवं चर्म कार्य था।
- स्त्रियाँ भी चटाई बनने का कार्य करतीं थीं।
धार्मिक स्थिति
- आर्य एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे।
- यहाँ प्राकृतिक मानव के हित के लिये ईश्वर से कामना की जाती थी।
- वे मुख्य रूप से केवल बर्ह्मान्ड को धारण करने वाळे एकमात्र परमपिता परमेश्वर के पूजक थे।
- वैदिक धर्म पुरूष प्रधान धर्म था।
- आरम्भ में स्वर्ग या अमरत्व की परिकल्पना नहीं थी।
- वैदिक धर्म पुरोहितों से नियंत्रित धर्म था।
- पुरोहित ईश्वर एवं मानव के बीच मध्यस्थ था।
- मनुष्य एवं देवता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले देवता के रूप में अग्नि की पूजा की जाती थी।
- वैदिक देवताओं का स्वरुप महिमामंडित मानवों का है।
- ऋग्वेद में 33 प्रकार के तत्वों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख है।
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